प्रेमचंद का औपन्यासिक लेखन, विकासात्मक सर्वेक्षण
सुशांत चक्रवर्ती1 एवं आभा तिवारी2
1सहायक प्राध्यापक, हिन्दी, विवेकानंद महाविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
2प्राध्यापक, हिन्दी, शा.दू.ब.म.स्ना. महाविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
प्रस्तावनारू
प्रत्येक रचनाकार अपने युग की उपज होता है। समय और समाज ही प्रत्येक रचनाकार की प्रेरणा का स्रोत होता है। प्रेमचंद हिन्दी के पहले उपन्यासकार हैं जिन्होंने अपने रचना कर्म को समय और समाज से सीधे जोड़ा है। उन्होंने उपन्यास को जादुई तिलिस्म से मुक्ति दिलाकर मानव जीवन की यथार्थता का मजबूत आधार दिया। वैसे इस परम्परा की शुरूआत भरतेन्दु युग के निबन्धों और उपन्यासों से हो चुकी थी। इस संदर्भ में श्रीनिवास दास का ‘परीक्षा-गुरु’ उल्लेखनीय है। लेकिन भारतेन्दु युग में सामाजिक उपन्यासों के पढ़ने वाले बहुत थोड़ी संख्या में थे। ‘चन्द्रकांता संतति’ जैसे तिलस्मी उपन्यासों के पढ़ने वाले लाखों थे। प्रेमचंद ने इन लाखों पाठकों को ‘सेवा- सदन’ का पाठक बनाया यह उनका युगान्तकारी काम था।1 सेवा-सदन के बाद प्रेमचंद का हर एक उपन्यास उनकी मौलिक प्रतिभा का सार्थक बयान बनकर आया और क्रमशः उनकी दृष्टि सामाजिक विसंगतियों को उभारने में अधिक प्रखर होती गयी।
प्रेमचन्द युगरू
हिन्दी उपन्यास साहित्य के द्वितीय उत्थान काल में प्रेमचन्द का अविर्भाव एक युगान्तकारी घटना थी। इन्होंने पहली बार उपन्यास के मौलिक क्षेत्र, स्वरूप और उद्देश्य को पहचाना, उसे जीवन के ठोस धरातल पर प्रतिष्ठित किया तथा एक नई गति और दिशा प्रदान कर प्रौढ़ता की सीमा तक पहुँचाया। व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर प्रेमचन्द ने जो प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया उसे सच्चाई के साथ अपने उपन्यासों में प्रतिबिम्बित किया। अपने गाँव और समाज के लिए प्रेमचन्द की प्रतिबद्धता व्यापक देश प्रेम के रूप में प्रकट हुई।
प्रेमचन्द लिखते हैं ”मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।“2 वे साहित्य को महज मनोरंजन की चीज नहीं मानते। उनके अनुसार ”हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का प्रकाश हो।“3 वे मानते थे कि ”समाज में होने वाली क्रांतियों, आन्दोलनों एवं हलचलों से बेखबर तथा समाज के दुख-सुख से
अप्रभावित रहते हुए अपने ही कल्पना लोक में विहार करने वाले साहित्य के लिए; अमीरों और सेठ-साहूकारों का मजाक बनकर जीवन यापन करने वाले साहित्यकारों के लिए इस दुनियाँ में कोई जगह नहीं है।“4 और इन्हीं साहित्यिक आदर्शों के अनुकूल प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक यात्रा को प्रगतिशील एवं वैचारिक धरातल पर निरापद बनाये रखा।
प्रेमचंद ने लगभग 1901 में उपन्यास लिखना शुरू किया और जीवन-पर्यन्त लिखते रहे। अपने छत्तीस वर्ष के साहित्यिक जीवन में उन्होंने लगभग एक दर्जन उपन्यास लिखे। अपनी रचनात्मक यात्रा के विकास-सोपानो में उनकी यथार्थ दृष्टि निरन्तर प्रखर होती गयी। जहाँ उनके आरम्भिक उपन्यासों में काल्पनिक आदर्श और लचीली भावुकता का संयोग है, वहीं मध्यवर्ती और परवर्ती उपन्यास क्रमशः सामाजिक यथार्थ और मजबूत वैचारिकता को स्पष्ट करते हैं। अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ तो जैसे समकालीन सामाजिक यथार्थ का ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है। अपनी समूची यात्रा में उन्होंने युगीन इतिहास को कलात्मक अभिव्यक्त देकर जीवंत बनाया है।
प्रेमचंद के समय का समाज गुलामी और दासता की त्रासद स्थिति से गुजर रहा था। अंग्रेजी साम्राज्य के दुष्चक्र के नीचे भारतीय मजदूर और किसान पिस रहे थे। समाज का सामन्ती ढाँचा पूरी मजबूती पर था। जज, वकील, प्रोफेसर जो जितना अधिक शिक्षित था, उसका स्वार्थ भी उतना ही बड़ा था। घूसखोरी, बेईमानी, और शोषण चरम सीमा पर थे। जमींदार, कारिंदा और साहूकार सामन्ती शोषण-चक्र के सिपहसालार थे, बेचारे किसानों तथा मजदूरों की स्थिति अधिक दयनीय होती जा रही थी। ग्रामवासी किसान धर्म, नैतिकता और ढोंग जैसे अन्धविश्वासों का कायल था, जिसकी आड़ में शोषक-वर्ग फल-फूल रहा था। शोषित कृषक-समाज को देश-दुनिया की गतिशीलता की कोई खबर नहीं थी। अपनी दुरावस्था के प्रति एक नियतिपरक जड़ता के साथ वह समर्पित था। भारतीय समाज का मध्यम वर्ग आडम्बर प्रियता में लिप्त था। कम आमदनी और थोथी मर्यादा के बीच सन्तुलन बैठाने का द्वन्द्व इस वर्ग का सबसे बड़ा दुःख था।5
प्रेमचंद ने आरंभिक उपन्यासों में सामाजिक समस्याओं की जड़ों को तो बखूबी पहचान लिया है लेकिन मुक्ति का व्यवहारिक तरीका नहीं निकाल सके हैं; क्योंकि उनका दृष्टिकोण सुधारवादी था। राजनीतिक और सामाजिक ज्ञान के बढ़ने के साथ ही उत्तरोतर उनकी सुधारात्मक आदर्शवादिता यथार्थ के प्रति समर्पित होती गयी और बाद के उपन्यासों में उनकी नजर अधिक साफ और पैनी होती गयी है। उनके उपन्यासों को प्रकाशन क्रम के अनुसार तीन वर्गों में विभाजित कर हम उसके आधार पर लेखकीय दृष्टि का क्रमानुसार विकासात्मक अवलोकन करेंगे:-
1. आरम्भिक उपन्यास -
(अ) वरदान - 1905-06
(ब) प्रतिज्ञा - 1906
(स) सेवासदन - 1916
2. मध्यवर्ती उपन्यास -
(अ) प्रेमाश्रम - 1922
(ब) निर्मला - 1923
(स) रंगभूमि - 1925
(द) कायाकल्प - 1928
3. परवर्ती उपन्यास -
(अ) गबन - 1931
(ब) कर्मभूमि - 1932
(स) गोदान - 1936
(द) मंगलसूत्र - अपूर्ण
1. आरम्भिक उपन्यासरू-
प्रेमचंद ने अपनी पहली रचना की शुरूआत ही गैर-रोमेन्टिक सामाजिक दृष्टि से की थी। मामू के प्रणय प्रसंग पर लिखा गया उनका पहला प्रहसन एक सामाजिक व्यंग्य था। इसके पाँच वर्षों के बाद उन्होंने रूठी रानी नामक एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा जिसमें उन्होंने राजपूतों की वीरता और देश-भक्ति को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया और स्वतंत्रता के लिए देशभक्ति और वीरता के साथ संगठनात्मक एकता के प्रति विश्वास व्यक्त किया। इस उपन्यास में लेखक ने सामाजिक बुराइयों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया लेकिन घटना प्रधान कथानक के कारण इसमें पात्रों का चरित्र विकसित नहीं हो सका है। इसीलिए इस प्रथम कृति की चर्चा कम होती है, लगभग इसी समय प्रेमचंद ने श्यामा और कृष्णा नामक उपन्यास भी लिखे थे पर वरदान को ही उनकी औपन्यासिक रचना-यात्रा का प्रस्थान बिन्दु माना जाता है।
(अ) वरदानरू-
इस उपन्यास का रचना काल 1905-06 है। यह पहले उर्दू में लिखा गया था। जिसका नाम ‘ज्लवा: ए-ईसार’ (त्याग का दिग्दर्शन) था। वरदान का मुख्य प्रतिपाद्य देश-भक्ति है। वरदान एक पारिवारिक कहानी है, जिसमें मध्यमवर्गीय जीवन की समस्याओं के साथ अभावग्रस्त ग्रामीण जीवन तथा राष्ट्रसेवी भावों से अवगत कराया है। इस समय समूचा विश्व आर्थिक संकट से गुजर रहा था। युद्ध का खौफनाक वातावरण तैयार हो चुका था। जापान ने रूस को परास्त कर दिया था। साम्राज्यवादी शक्तियों के शोषण और अत्याचार से छोटे देश क्षुब्ध थे। ऐसे समय प्रेमचंद ने स्वतंत्रता, देश-भक्ति और राष्ट्रीयता की भावना को जगाने की आवश्यकता महसूस की। ‘वरदान’ इसी निश्चय का आरम्भिक प्रयास है।
(ब) प्रतिज्ञारू-
यह उपन्यास सन् 1906 में लिखा गया था, यह ‘वरदान’ की तुलना में अधिक सुलझा हुआ उपन्यास है। भारतीय समाज की विसंगत परिस्थितियों में सबसे पीड़ित विधवा नारी की समस्या इस उपन्यास का मूल विषय है। उन दिनों आर्य समाज द्वारा समाज सुधार के प्रयास चल रहे थे। अछूतोद्धार और विधवाओं की हालत सुधार का कार्यक्रम जोर पकड़ रहा था। इन्हीं परिस्थितियों से प्रभावित होकर प्रेमचंद ने ‘प्रतिज्ञा’ नामक सामाजिक उपन्यास की रचना की थी।
‘प्रतिज्ञा’ मनोवैज्ञानिक धरातल पर ‘वरदान‘ से बहुत आगे है। इसमें पात्रों के मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण है। सुमित्रा अपने को विधवा पूर्णा से भी अधिक भाग्यहीन मानती है। वह पूर्णा से कहती है ‘‘मेरा विवाह तो इस महल से हुआ है। लाला बदरी प्रसाद की बहू हूँ, इससे बड़े सुख की कल्पना कौन कर सकता है ? भगवान् ने किसलिए मुझे जन्म दिया, समझ में नहीं आता। इस घर में कोई अपना नहीं है, बहन। मैं जबर्दस्ती पड़ी हुई हूँ, मेरे मरने-जीने की किसी को परवा नहीं। इस वाक्य से सुमित्रा का मानसिक अन्तद्र्वन्द जाहिर है। वह हमेशा पति-प्रेम पाने को लालायित रहती है - ‘‘पति के हृदय को पाने के लिए वह नित्य नया सिंगार करती थी और इस अभीष्ट के पूरा न होने से उसके हृदय में ज्वाला-सी दहकती रहती थी।’’6
प्रेमचंद ने इस उपन्यास में एक सामाजिक समस्या को सुधारवादी ढंग से सुलझाने की कोशिश की है। इस उपन्यास में प्रासंगिक कथा-तत्व, सरल और चुस्त भाषा तथा रोचक कथोपकथन से प्रेमचंद की रचनात्मक क्षमता के विकास का संकेत मिलता है।
(स) सेवासदनरू-
‘सेवासदन’ हिन्दी का पहला युगान्तकारी उपन्यास है। प्रेमचंद ने इसे पहले उर्दू में ‘बजरे हुस्न’ के नाम से लिखा था। कुछ विद्वान् इसका रचना काल 1916 मानते हैं, लेकिन बहुमत सन् 1917 का पक्षधर है। 24 जनवरी 1913 को दया नारायण निगम के नाम लिखा प्रेमचंद का पत्रांश दृष्टव्य है - ‘‘मैं आजकल एक किस्सा लिखते-लिखते नाविल लिख चला। कोई सौ सफे तक पहुँच चुका है। इसी वजह से छोटा किस्सा न लिख सका। अब इस नाविल में ऐसा जी लग गया है कि दूसरा काम करने को जी ही नहीं चाहता। किस्सा दिलचस्प है और मुझे ऐसा ख्याल होता है कि मैं अबकी बार नाविल-नवीसी में भी कामयाब हो सकूगां।’’7 और आठ अगस्त को उन्होंने उपन्यास खत्म करने की सूचना दी।
‘सेवासदन’ एक सशक्त उपन्यास है। इसमें समाज के क्रूर शोषक बांकेबिहारी, वकील, समाज सुधारक, सफेदपोश, नेतागण तथा वेश्या आदि तमाम वर्गीय पात्र हैं जिससे समूचे समाज का चित्र ही सजीव हो गया है। सेवासदन कथानक, भाषा, चरित्र-चित्रण एवं कथोपकथन की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास में एक युगान्तकारी परिवर्तन था और चैन की मृत्यु के रूप में प्रेमचंद के अगले महान् उपन्यास (प्रेमाश्रम) की सूचना भी।
2. विकास कालरू-
आरम्भिक उपन्यासों में जहाँ प्रेमचंद का विषय-क्षेत्र नगरीय जीवन तक सीमित रहा है वहीं उनके मध्यवर्ती उपन्यासों एवं परवर्ती उपन्यासों का मुख्य विषय क्षेत्र ग्राम्य जीवन रहा है। ‘प्रेमचंद’ के मध्यवर्ती उपन्यास आरम्भिक उपन्यासों की तुलना में कथानक, संवाद, चरित्र-चित्रण एवं वातावरण की दृष्टि से अधिक सशक्त एवं संयोजित हैं जो लेखक की प्रगति-यात्रा के साथ क्रमशः पूर्णता प्राप्त करते गए हैं। उनके मध्यवर्ती उपन्यास समस्यामूलक हैं, जिनमें सामन्ती दबाव में कृषक जीवन की त्रासदी और उससे उबरने की कसमसाहट, विधवा-समस्या तथा अन्य सामाजिक समस्याएँ हैं। उनके मध्यवर्ती उपन्यासों में निम्न उपन्यासों को शामिल किया जा सकता है:-
(अ) प्रेमाश्रमरू-
इसका रचनाकाल 1919 है और प्रकाशन काल 1922। सेवासदन के बाद प्रेमचंद के उपन्यासों की कथावस्तु में विषय परिवर्तन हुआ है। प्रेमाश्रम में वे नगरीय जीवन को छोड़कर ग्रामीण कृषकों की ओर झुके हैं। यह जमाना भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में गाँधी जी के सत्याग्रह प्रचार का था। फरवरी 1919 में प्रस्तुत रोलेक्ट बिल के विरोध में गाँधी जी के नेतृत्व में देशव्यापी हड़ताल की तारीख 30 मार्च नियत थी जिसे बदलकर 06 अप्रेल कर दिया गया इस कारण यह प्रभावी नहीं रही। लेकिन राष्ट्रीय एकता की लहर समूचे देश में फैल गयी। सम्प्रदायिक विभेद इसमें आड़े नहीं आया। सत्याग्रह का प्रतिउत्तर अंग्रेज जनरल डायर ने 13 अप्रेल 1919 को जलियावाला बाग हत्याकांड के रूप में दिया।
‘प्रेमाश्रम’ के रचनाकाल में उक्त घटनाएँ प्रेमचंद की नजरों में गुजर रही थीं। यद्यपि प्रेमचंद गाँधीवाद के समर्थक थे, लेकिन इस मार्ग की परिणति से भी वाकिफ थे जिसका संकेत वे प्रेमाश्रम में करते हैं। हाँलाकि उनकी आस्था उन्हें गाँधीवाद को लांघने नहीं देती फिर भी प्रेमाश्रम किसानों की दीन-दशा की चिंता, साथ ही देश की बिगड़ी राजनैतिक हालत का लेखा भी प्रस्तुत करता है।8
‘प्रेमाश्रम’, पूर्व औपन्यासिक परम्परा से हटकर लिखा गया उपन्यास है। प्रेमाश्रम में आकर प्रेमचंद की कलम में कलात्मकता आ गई है। इस उपन्यास का नायक कोई व्यक्ति विशेष न होकर भारत का बहुसंख्यक कृषक वर्ग है। भारतीय ग्रामीण समाज का मूल ढाँचा सामन्ती रहा है, जिसमें अंग्रेजी दासता के परिणाम स्वरूप कृषकों की माली-हालत अत्यन्त दयनीय हो गई थी।
(ब) निर्मलारू-
‘निर्मला’ एक सामाजिक उपन्यास है। वरदान, प्रतिज्ञा और सेवासदन की ही तरह उपन्यास का विषय नारी पराधीनता की समस्या है। पुरुष-प्रधान समाज में जहाँ अर्थोपार्जन का एकाधिकार पुरुष के हाथ है वहाँ नारी की स्थिति खरीद-फरोख्त की चीज जैसी है, जिसने दहेज जैसी परम्परा को जन्म देकर नारी को पराधीन बनाया है। इसी यथार्थ को प्रेमचंद ने कथा-विषय बनाकर इस यथार्थवादी उपन्यास की रचना की।
निर्मला कुछ तकनीकी खामियों के बावजूद अपनी समग्रता में सामाजिक यथार्थ को उभारने की पहल है। हालांकि इस यथार्थ में विद्रोह नहीं समर्पण की अवस्था है, फिर भी क्रान्ति की जमीन को उर्वर बनाने में इस उपन्यास का स्थान अन्यतम है।
(स) रंगभूमिरू-
‘रंगभूमि’ एक विशाल कथा-पट वाला उपन्यास है। यह उपन्यास 1930 के आंदोलन के पहले लिखा गया है। जब-तक गाँधी जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अगुआ के रूप में जनमानस में प्रतिष्ठित हो चुके थे। देश की बहुसंख्यक जनता गाँधीवादी नीतियों को अंगीकार कर चुकी थी। उपन्यास लिखे जाते समय आंदोलन की गति मद्धिम हो गयी थी। प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में गाँधीवादी आदर्शों की स्थापना की रचनात्मक पहल की, और सामयिक विसंगतियों का यथार्थ-चित्र प्रस्तुत किया। कहीं-कहीं उन्होंने गाँधीवादी अव्यवहारिक आदर्शों पर भविष्य के ऐतिहासिक यथार्थवादी आग्रहों को भी विजय दिलवाई है। इस प्रयास में ‘रंगभूमि’ का कथा-विस्तार तात्कालिन राजनीतिक एवं सामाजिक परिवेश का समीक्षात्मक खुलासा बन गया है। वास्तव में ‘रंगभूमि’ सन् 1920 और 1930 के आंदोलनों के बीच हिन्द-प्रदेश की रंगभूमि है। इसमें राजा, ताल्लुकेदार, पूँजीपति, अंग्रेज-हाकिम, किसान, मजदूर, हिन्दुस्तानी जीवन की एक विशद झाँकी देखने को मिलती है।9
‘रंगभूमि’ का मूल कथ्य भारतीय कृषि-सभ्यता पर औद्योगिक सभ्यता के आक्रमण और अंग्रेजी-साम्राज्य की दमनकारी कुटिलताओं के विरुद्ध अजेय भारतीय जनता का जुझारू संघर्ष है। प्रेमचंद ने ‘प्रेमाश्रम’ में किसान-मजदूर के संघर्ष की कल्पना की थी, ‘रंगभूमि’ में उन्होंने देशी राज्यों में आंदोलन की सम्भावनाओं को उजागर किया।
‘रंगभूमि’ औद्योगीकरण के दुष्परिणामों को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। जिसमें यह जाहिर होता है कि औद्योगीकरण से सामंतों और व्यापारियों का कोई नुकसान नहीं होगा बल्कि कृषि-संस्कृति के अवमूल्यन का दुःख किसानों को ही भोगना होगा। लेकिन चूँकि उद्योग युग का आगमन एक ऐतिहासिक आवश्यकता है इसलिए तमाम गाँधीवादी विरोधों के बावजूद उसकी विजय होती है जो पूँजीवाद के भविष्य का पूर्व संकेत है। इस प्रकार कह सकते हैं कि रंगभूमि का उद्देश्य जनता की कत्र्तव्य चेतना को जगाना है।10
(द) कायाकल्परू-
कायाकल्प सन् 1928 की कृति है। यह उपन्यास आलोचकों में सर्वाधिक विवादग्रस्त रहा है। कायाकल्प की कथा के मुख्यतः तीन भाग हैं - राजा-प्रजा संबंध, हिन्दू-मुस्लिम समस्या और राजमहल का अन्तःपुर। ‘रंगभूमि’ में प्रेमचंद ने जहाँ देशी राजाओं की क्रूरता और अत्याचार का विहंगम दृश्य दिखाया था, वहीं कायाकल्प में वे इसे अधिक नजदीक से देखकर चित्रित करते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सेवासदन के बाद अधिक व्यापक रूप में उठाते हैं और समस्या की जड़ में क्रियाशील शक्तियों की तरफ संकेत करते हैं। उपन्यास में अति मानवीय चमत्कारों का भी समावेश है।
पे्रमचंद ने परतंत्र भारत के राजाओं, जमींदारों और सामन्तों को परिस्थितियों के दबाव में रियाया के शोषण के प्रति विवश दिखाया है। उनके उपन्यासों में भी ये लोग स्वीकारते है कि अंग्रेजों को डालियाँ नजराना भेजने और भोज-उत्सवों में स्वागत के लिए तथा व्यक्तिगत शान-शौकत की रचना के लिए उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी रियाया पर जब्र करना ही पड़ता है। लेकिन उनकी इस नैतिक स्वीकारोक्ति को शोषण का एक विनम्र बहाना ही कहा जा सकता है।
‘कायाकल्प’ में प्रेमचंद को ‘प्रेमाश्रम’ और ‘रंगभूमि’ की अपेक्षा शिल्पगत सफलता कम मिली है लेकिन वण्र्य-विषय के नजदीकी चित्र खींचने में कलात्मक निखार आया है। राजा-प्रजा सम्बन्धों की हिन्दू-मुस्लिम दंगों की ओर रनिवासों की विलासिता की बारीकियों से पाठकों को प्रेमचंद ने इस उपन्यास में सफलतापूर्वक परिचित करवाया है।
3. परवर्ती उपन्यासरू-
प्रेमचंद अपने परवर्ती उपन्यासों में अधिक यथार्थोन्मुख हुए हैं। पारम्परिक आदर्शवाद से मुक्त उनकी सूक्ष्म-वैज्ञानिक दृष्टि, समस्याओं को उसके यथार्थ रूप में देखने और प्रस्तुत करने की कला में अधिक विकसित हुई है। इन उपन्यासों में प्रेमचंद ने समस्याओं के सुधारवादी हल निकालने से अपने को बचाया है, एवं प्रगतिशील मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
(अ) गबनरू-
‘गबन’ सन् 1930-31 के आस-पास की कृति है। डाॅ. रामरतन भटनागर आदि कतिपय आलोचक ‘गबन’ को सन् 1904 के आस-पास इण्डियन प्रेस से प्रकाशित ‘कृष्णा’ नामक उर्दू उपन्यास का ही परिवर्द्धित-संशोधित संस्करण मानते हैं।11 किन्तु इसमें विवाद है, क्योंकि इसके पीछे किसी ठोस प्रमाण का आधार नहीं है।
मदन गोपाल के अनुसार - ‘‘ ‘गबन’ एक प्रकार से उनका मौलिक उपन्यास था। ‘एक प्रकार से’ हम इसलिए कहते हैं, कि इसमें स्त्रियों के आभूषणों के प्रति मोह पर प्रहार किया गया था। इसी समस्या को लेकर प्रेमचंद ने ‘नवाबराय’ के नाम से किशन लिखा था। उसी किशन उपन्यास का शायद यह नया रूप था। परन्तु यह रूप इतना नया था कि इसे मौलिक ही समझना चाहिए। इसमें अन्य सामयिक समस्याओं पर भी रोशनी डाली गयी है, जैसे हिंसात्मक राष्ट्रवादियों पर अत्याचार, न्यायाध्यक्षों की गैर-ईमानदारी और राष्ट्रीय आजादी आंदोलन इत्यादि।’’12
‘गबन’ के लिखने में प्रेमचंद के दो उद्ेश्य निहित हैं। एक ओर वे मध्यमवर्गीय जीवन का यथार्थ-जीवन चित्रित करना चाहते हैं, और दूसरी ओर पुलिस के कारनामों का पर्दाफाश करके उसकी वास्तविकता से हमें परिचित कराना चाहते हैं। निर्मला के बाद इस उपन्यास से प्रेमचंद यथार्थवाद की दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं। इस उपन्यास में समस्याओं एवं पात्रों के चित्रण में प्रेमचंद ने आदर्शवाद का अधिक सहारा नहीं लिया है। बल्कि उन्होंने तत्कालीन सामाजिक राजनैतिक परिदृश्यों का यथातथ्य चित्र प्रस्तुत किया है। इसीलिए हम इस उपन्यास में प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को अनुपस्थित सा पाते हैं।
‘गबन’ में प्रेमचंद ने एक मध्यमवर्गीय युवक की धन-लिप्सा, भोग लालसा, आत्म प्रदर्शन एवं कायरता आदि चारित्रिक दुर्बलताओं का यथार्थ चित्र खींचा है। जबकि जालपा में जहाँ मध्यमवर्गीय नारी की आभूषण-प्रियता है, वहीं वह एक देशभक्त नारी भी है। जालपा के चरित्र में उपन्यास के उत्तरार्द्ध में अस्वाभाविक परिवर्तन हुआ है। फिर भी जालपा के रूप में प्रेमचंद ने स्वाभिमान की रक्षा और कर्तव्य का पालन करने वाली भारतीय नारी का आदर्श प्रतिनिधि प्रस्तुत किया है। जो प्रेमचंद की सामाजिक-प्रतिबद्धता एवं श्रेष्ठ-कलात्मक अभिव्यक्ति का परिचायक है।
(ब) कर्मभूमिरू-
‘कर्मभूमि’ सन् 1932 के आस-पास की रचना है । यह समय सविनय अवज्ञा आंदोलन का था। आंदोलनकारियों की गिरफतारियाँ हो रही थीं। पुलिस का अत्याचार जोरों पर था । देश की साधारण जनता भूखो मर रही थी लेकिन, किसानों से बलात् लगान वसूला जा रहा था । प्रेमचंद एक सजग रचनाकार की दृष्टि से यह सब देख रहे थे। उसी समय उन्होंने ‘हंस’ में ‘दमन की सीमा’ शीर्षक से लिखा - ‘‘प्रजा भूखो मर रही है, हमारे विद्यालयों को अपने हलबे-भांड़े में रत्ती भर की कमी भी स्वीकार नहीं। सब खर्च ज्यों-का-त्यों चल रहा है। प्रजा के पास लगान देने को कुछ न हो, मगर सरकार अपना लगान वसूल करने ही दौड़ेगी, चाहे किसान बिक जाय, चाहे उसकी जमीन बेदखल हो जाय, उसे बर्तन-भांड़े, बैल-बछिये, अनाज-भूसा सबका सब बिक जाय .......... प्रजा के रहने को झोपड़े मयस्सर नहीं, सरकार को नई दिल्ली बनवाने की धुन है। प्रजा की रोटियों का ठिकाना नहीं, अधिकारियों को दस-दस और पाँच-पाँच हजार वेतन अवश्य मिलना चाहिए।’’13
प्रेमचंद ने ‘कर्मभूमि’ में पात्रों का यथार्थ-चरित्र प्रस्तुत किया है। विशेषकर अमरकान्त के चरित्र-चित्रण में प्रेमचंद की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का समावेश है। उसके दुर्बल चरित्र की पृष्ठभूमि में उसका पारिवारिक- सामाजिक परिवेश है। वह समरकान्त जैसे बड़े महाजन का बेटा है, इसलिए उसमें सामंतवादी अभिजात्यता वर्तमान है, वह मातृहीन है और पिता एवं पत्नी की उपेक्षा से उसका व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है, इसलिए वह दोनों ही के प्रति विद्रोह करता है। ‘कर्मभूमि’ के कतिपय नारी-पात्र अवश्य ही उपन्यास की उपलब्धि हैं - ‘‘सुखदा सम्पन्नता के जीवन से मुक्त होकर सेविका का पथ लेती है सकीना नारी की प्रेरणा-शक्ति और असीम सम्भावनाओं का प्रतीक है। नैना भारतीय नारीत्व के गौरव को सुरक्षित रखते हुए स्वयं को समाज पर न्यौछावर कर देती है। ‘कर्मभूमि’ के सभी पात्र इन नारियों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं।’’14
इस प्रकार ‘कर्मभूमि’ में प्रेमचंद का यथार्थवाद अपने उत्कृष्ट रूप में उपस्थित हुआ है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों का कलात्मक संयोजन किया है। पात्रों के चरित्र-चित्रण में प्रेमचंद ने अपनी मनोवैज्ञानिक-सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। ‘कर्मभूमि’, ’गबन’ के बाद प्रेमचंद की यथार्थमुखता का एक उल्लेखनीय पड़ाव है।
(स) गोदानरू-
प्रेमचंद ने सन् 1932 में ‘गोदान’ लिखना आरम्भ किया था। यह उपन्यास करीब तीन साल में पूरा हुआ। ‘गोदान’ प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसमें प्रेमचंद का यथार्थ चरम अवस्था को प्राप्त हुआ है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास में भारतीय समाज के एक बहुत बड़े भाग की कथावस्तु को विषय बनाया है। ‘गोदान’ में प्रेमचंद ने एक ओर ग्रामीण-जीवन विशेषकर भारतीय कृषक-जीवन का यथार्थ-चित्रण किया है। वहीं दूसरी ओर शहरी-जीवन की भौतिकतावादी विडम्बनाओं पर भी प्रकाश डाला है - ‘‘हमारे देश के भीतर नागरिकों के दो प्रमुख जीवन-स्तर हैं। उनमें एक तो वह, जो शहरों में रहता है और भारतीय होकर भी अपने को भारतीय कहने में शर्माता है तथा दूसरा वह है जिसके अंदर गाँवों अथवा देहातों के सबसे बड़े भारतीय जन-समूह का जीवन है, जहाँ पर ही सच्चा भारत निवास करता है और एक वर्ग पटवारियों तथा सरकारी कर्मचारियों का है जो रहता तो देहातों में है, परन्तु अपने को शहराती ही मानता है। इन सबका यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में हुआ है।’’15
सच्चे अर्थों में ‘गोदान’ भारतीय ग्राम-इकाई और नगर-इकाई का महाकाव्य कहा जा सकता है। ‘गोदान’ की केन्द्रीय समस्या ऋण की समस्या है। किसानों के जीवन के अलग पहलुओं पर वह उपन्यास लिख चुके थे - ‘‘ ‘प्रेमाश्रम’ में बेदखली और इजाफा, लगान पर, ‘कर्मभूमि’ में बढ़ते हुए आर्थिक संकट और किसानों की लगानबंदी की लड़ाई पर - लेकिन कर्ज की समस्या पर उन्होंने विस्तार से कोई उपन्यास न लिखा था। ‘गोदान’ लिखकर उन्होंने उस समस्या पर प्रकाश डाला जो आये दिन उनके जीवन को सबसे ज्यादा स्पर्श करती है।‘‘16
‘गोदान’ का नायक होरी व्यक्ति पात्र भी है और प्रतिरूपिक (टिपिकल) पात्र भी। होरी के चरित्र में व्यक्ति और समाज का अद्भुत कलात्मक संयोजन है। प्रेमचंद ने कृषक-जीवन को उद्घाटित करने के लिए ही होरी के चरित्र को गढ़ा है। होरी के जीवन की समस्यायें सामान्य भारतीय कृषक की समस्यायें हैं।
‘गोदान’ प्रेमचंद की उपन्यास-कला का चरम-उत्कर्ष है। इस उपन्यास में प्रेमचंद अपनी पुरानी भावभूमि को छोड़कर यथार्थ के धरातल पर एकदम आगे बढ़ गये हैं। इस उपन्यास में किसी भी समस्या का सुधारवादी हल प्रस्तुत नहीं किया गया है, और न किसी जमींदार अथवा धनी पात्र का हृदय-परिवर्तन ही हुआ है। होरी की मृत्यु मानो उस जर्जर समाज-व्यवस्था की ही मृत्यु की घोषणा है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ‘‘पे्रमचंद ने ही हिन्दी उपन्यासों को सामाजिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने अपने उपन्यासों में जन जीवन का बहुत सूक्ष्म एवं यथार्थ वर्णन किया है। विभिन्न सामाजिक समस्याओं को उठाकर उनको समझाने का प्रयास किया है। पे्रमचंद नेे अपने उपन्यासों में जिस समाज का वर्णन किया है, उसका वृहद भाग कृषकों का है इसके पश्चात् उन्होंने मध्यम वर्ग तथा अल्प भाग में अभिजात्य वर्ग का वर्णन किया है। इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पे्रमचंद को शताब्दियों से पददलित: अपमानित और उपेक्षित किसान की आवाज तथा उपेेक्षित और असहाय नारी जाति का जबरदस्त वकील कहा है।’’17
संदर्भ ग्रंथ रू-
1ण् शर्मा राम विलास, प्रेमचंद और उनका युग, पृ. 31
2ण् प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 47
3ण् प्रेमचंद, कुछ विचार, पृ. 24-25
4ण् प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृ. 20
5ण् डाॅ. सत्येन्द्र (सं.), प्रेमचंद, पृ. 105
6ण् प्रेमचंद, प्रतिज्ञा, पृ. 51, 62
7ण् राय अमृत, कलम का सिपाही, पृ. 170
8ण् प्रेमचंद, प्रेमाश्रम, पृ. 53
9ण् शर्मा रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, पृ. 84
10ण् पांडे श्रीनारायण, प्रेमचंद का संघर्ष, पृ. 26
11ण् भटनागर रामरतन, कलाकार प्रेमचंद, पृ. 175
12ण् गोपाल मदन, कलम का मजदूर, पृ. 182
13ण् राय अमृत, कलम का सिपाही, पृ. 455
14ण् गुरु राजेश्वर, कलम का मजदूर: प्रेमचंद, पृ. 297
15ण् सत्येन्द्र (सं.), प्रेमचंद में संकलित डाॅ. त्रिभुवन सिंह का निबंध ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’, पृ. 110
16ण् शर्मा रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, पृ. 101
17ण् हिन्दी भाषा और साहित्य इतिहास, पृ. 284
Received on 25.07.2011
Accepted on 22.08.2011
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Research J. Humanities and Social Sciences. 2(3): July-Sept., 2011, 132-136